अभी हाल के भारत के सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय ने जिसमे जजों की नियुक्ति की वर्तमान कोल्जियम व्यवस्था की जगह एक न्यायिक आयोग बनाने की पारदर्शी व्यवस्था को निरस्त कर देना, भारत के प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के समक्ष एक व्यवहारिक विचारणीय प्रश्न खड़ा कर दिया है - "क्या भारत की न्यायपालिका भारत की प्रजातान्त्रिक संरचना से भी ऊपर एक स्वयंसार्वभौमिक सर्वसमर्थ संस्था है ?"
भारत के लोकतंत्र का मानबिंदु, संविधान आधारित संसद है जिसे और सिर्फ उसे ही कानून बनाने का क़ानूनी अधिकार है - लेकिन भारत के केन्द्रीय सत्ता में नेहरु के अवतरण या यों कहे मोहनदास करमचंद गाँधी द्वारा अंग्रेजी व्यवस्था के उत्तराधिकार के पोषक के रूप में नेहरु का चयन - शालीनता, सक्षमता और दूरदर्शी ज्ञान के अभाव से अधिक भारत के लिए श्राप साबित हुआ | एक मित्र के ब्लॉग से निम्न पद आपके अवलोकनार्थ एवं विचारार्थ प्रस्तुत है ......
इसी न्यायपालिका की स्वतंत्रता ने संसद का सर्वमान्य कानून को रद्द कर संविधान को अपने निचे कर दिया और अब यह एक विचारणीय यक्ष प्रश्न बनकर लोकतंत्र को चिढ़ा रही है | आप " न्यायपालिका की स्वतंत्रता " और "न्यायपालिका की निष्पक्षता "के बीच चुनने का यक्ष कार्य करें
भारत के लोकतंत्र का मानबिंदु, संविधान आधारित संसद है जिसे और सिर्फ उसे ही कानून बनाने का क़ानूनी अधिकार है - लेकिन भारत के केन्द्रीय सत्ता में नेहरु के अवतरण या यों कहे मोहनदास करमचंद गाँधी द्वारा अंग्रेजी व्यवस्था के उत्तराधिकार के पोषक के रूप में नेहरु का चयन - शालीनता, सक्षमता और दूरदर्शी ज्ञान के अभाव से अधिक भारत के लिए श्राप साबित हुआ | एक मित्र के ब्लॉग से निम्न पद आपके अवलोकनार्थ एवं विचारार्थ प्रस्तुत है ......
प्रथम प्रधान मंत्री ही किसी के विशेष प्रिय-पात्र होने के
कारन पद पा गए – फिर
उन्होंने अपने चहेतों को महत्वपूर्ण स्थान पर रखने की राजनितिक संस्कृति की नीब
डाल दी – धीरे धीरे यह घातक रोग राज्यतंत्र
के हर अंग में फ़ैल गया –योग्य के
बदले प्रिय-पात्र हमारी राजनीती का दिश-निर्देशक तत्व बन गया – प्रिय व्यक्ति – जाती या समुदाय को प्रश्रय – इसी राजनितिक संस्कृति को सेकुलरवाद,जनवाद
आदि कहा गया
हमारे देश में चरित्रवान प्रतिभाओं वाले लोगों की कमी नहीं है – समस्या है इन्हें ढूंडकर उचित स्थान देने
की – ठीक जगह पर ठीक व्यक्ति रहे इसके लिए
स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही कोई उपाय नहीं किया गया बल्कि हर महत्वपूर्ण पद को लाभ लेने – देने का
पुरस्कार मात्र मान लिया गया
यह सारांश है भारतीय राष्ट्रिय प्रजातान्त्रिक सरकार संचालन व्यवस्था का और इसी से पूरी तरह प्रभावित हमारी न्यायिक प्रणाली भी रही है जिसमे अपने को सर्वोच्च समझने और उपकृत होने तथा करने की संस्कृति इस कदर हावी हो चूकी है की करोड़ों मुकदमे कई दशकों से न्यायपालिका में लंबित पड़े है और अपने अन्दर सुधार की हर प्रक्रिया को न्यायपालिका अपने ऊपर हमला समझती है और " न्यायपालिका की स्वतंत्रता " का हनन का तर्क देती है -- मै "न्यायपालिका की निष्पक्षता " की समझ रखता हूँ लेकिन ये " न्यायपालिका की स्वतंत्रता " समझ से परे है |
इसी न्यायपालिका की स्वतंत्रता ने संसद का सर्वमान्य कानून को रद्द कर संविधान को अपने निचे कर दिया और अब यह एक विचारणीय यक्ष प्रश्न बनकर लोकतंत्र को चिढ़ा रही है | आप " न्यायपालिका की स्वतंत्रता " और "न्यायपालिका की निष्पक्षता "के बीच चुनने का यक्ष कार्य करें
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